आनंद प्राप्ति का राजमार्ग
मन की अवस्था इन्द्रियों के बर्ताव के अनुरूप होती है । यह मनुष्य के हाथ की बात है कि इन्द्रियों का चाहे सदुपयोग करे चाहे दुरुपयोग । इसीलिए सदैव इन्द्रियों की उत्तेजना से बचने का प्रयत्न करना चाहिए ।
आनंद प्राप्ति का राजमार्ग |
इमानि यानि पंचेन्द्रीयाणि मनः शष्ठानि में ह्रदि ब्रह्णाणा संशितानी ।
यै रे व ससृजे घोर तैरेव शांतिरस्तु नः ।। ( अथर्ववेद 19/9/5)
परमेश्वर ने यह मानव शरीर बहुत सोच - समझकर बनाया है । इतना विलक्षण और परिपूर्ण शरीर किसी भी प्राणि का नहीं है ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की इस प्रकार से रचना की गई है कि उनसे सुख , संतोष व आनंद की प्राप्ति के साथ - साथ व्यक्तित्व के विकास में भी सहायता मिलती है ।
पर यह भोला मूर्ख मनुष्य इन्द्रियों के मायाजाल में फसकर अपना सर्वनाश स्वयं ही कर लेता हैं । यह उसके हाथ मे है कि वह अपने मन की लगाम को कसे रहे और इन्द्रियों का सदुपयोग करते हुए आत्मिक सुख प्राप्त करे । पर वह तो उनके दुरुपयोग में ही अपनी बहादुरी समझता है । इन्द्रियों का प्रलोभन उलटे हारे मन को ही भ्रमित कर देता हैं ।सबसे पहले यह मन को बुराई का परामर्श देता हैं । फिर यह कल्पना के रूप में व्यक्त होता हैं । कल्पना में निर्मित उस चित्र का अनुसरण करने से सुख मिलता है । फिर इस सुख का विचार मन को आन्दोलित करता है , थोड़ी हलचल होती है और अंततः हम आत्मसमर्पण कर देते हैं तथा उस प्रलोभन के पीछे भागने लगते हैं । धीरे - धीरे मन का पतन हो जाता हैं । कुविचार और कुसंस्कार उस पर हावी होने लगते हैं , जिससे वह इन्द्रियों के प्रलोभन में और अधिक फसता जाता है ।
इससे बचने का उपाय हैं कि वैराग्य और अभ्यास के द्वारा मन को सदैव इन्द्रियों की उत्तेजना से बचाये रखना । इंद्रियों को नियंत्रण व संयम से उपयोग में लाया जाए , तो मन उनसे अलिप्त रहेगा । यही पवित्र जीवन का अर्थ है । किसी भी जीव से मोह या आसक्ति न रखो । हमारा प्रिय तो केवल परमात्मा है । कई लोग , विशेषकर युवा वर्ग , ईश्वर की सत्ता के प्रति अविश्वासी होते है ; परन्तु सत्य यही है कि परमात्मा ही एकमात्र वास्तविकता हैं । ईश्वर हमारे अंदर विद्यमान हैं पर हम उसके बारे में सचेत नही है । मानवता की यह महान त्रासदी है । मनुष्य जितना ही मन से पवित्र होता जायेगा , उतना ही वह अपने अंदर ईश्वर के मूर्त एवम विद्यमान रूप को देख सकेगा । मन को इन्द्रियों के प्रलोभन से बचाये रखने का सबसे सरल उपाय यही है कि उसे ईश्वर भक्ति में लगाए रखा जाए । मानव को जीवन के कर्म करते हुए मन को उनसे अलिप्त रखना चाहिए और उसे लोकोपयोगी कार्यो में लगाये रखना चाहिए । यही सच्ची ईश्वर भक्ति हैं । एक बार स्वामी विवेकानंद से प्रश्न किया गया ,'आपका भी तो हाड़ मास का शरीर है । क्या कभी आपको कामवासना ने नही सताया ?' तो उन्होंने उत्तर दिया था ,'मुझे तो जीवनभर कामवासना के चिंतन का अवसर ही नही मिला ।'इस प्रकार अपने मन को प्रभु के कार्य मे इतना अधिक संलग्न कर दो की वासनाओ का विचार ही मन मे न घुस सके ।
दृढ़ इच्छाशक्ति का यही सुफल है ।
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