> भारतीय संस्कृति व अखंड सौभाग्य का प्रतीक - अक्षय नवमी

भारतीय संस्कृति व अखंड सौभाग्य का प्रतीक - अक्षय नवमी

 भारतीय संस्कृति व अखंड सौभाग्य का प्रतीक - अक्षय नवमी


भारतीय संस्कृति, संसार की अत्यधिक विलक्षण और ज्ञानात्मक संस्कृति है। इस संस्कृति में तमाम मौके इस तरह बताये गये हैं जो मानवीय जीवन में समग्र दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं। इन्हीं मौकों में से एक है अक्षय नवमी।

भारतीय संस्कृति व अखंड सौभाग्य का प्रतीक - अक्षय नवमी

कार्तिक शुक्ल नवम्यां तु अक्षय नवमी व्रतम् के मुताबिक हर साल की कार्तिक मास की शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को अक्षय नवमी कहा जाता है। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार इसमें किये जाने वाले कर्मों का फल अक्षय हो जाता है। अक्षय का अर्थ है जिसका क्षय नहीं होता अर्थात् कभी नहीं घटना ।


इस अक्षय नवमी को सौभाग्यवती महिलायें अखण्ड सौभाग्य तथा तेजोमयी संतान के लिये व्रत रखती हैं। इसे अमला नवमी तथा कुष्मांडा नवमी भी कहते हैं। उड़ीसा में इसे कृत युगादि यानी कलयुग की स्थापना की नवमी भी कहा जाता है। मध्य भारत तथा दक्षिण में इस नवमी को जगत माता पार्वती का भी पूजा होता है। वृन्दावन में जुगल जोड़ी राधाकृष्ण की परिक्रमा का भी विधान है। समस्त भारत में अक्षय नवमी किसी न किसी रूप में मनाई जाती है। ज्यादातर स्थानों पर आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है या फिर मृत्तिका के विष्णु भगवान बनाकर उसे आंवले के लेप के पश्चात् धूप, दीप, दूब आदि से उपासना की जाती है, साथ ही अक्षय सौभाग्य के लिये वरदान मांगा जाता है।


ब्रह्मपुराण के अनुसार द्वापर युग में सती ने अखण्ड सौभाग्य तथा यशस्वी संतान के लिये भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिये आंवले के पेड़ के नीचे तप किया था, तब भगवान विष्णु सती के तप से प्रसन्न होकर वहां पर प्रकट हुये थे। उन सारे आंवलों को तपबल से लुगदी नब सती ने बनाकर भगवान विष्णु का लेप कर दिया। आंवले के प्रभाव को देखकर भगवान ने तब सती को अखण्ड सौभाग्य तथा उनकी कोख से राजा हरिश्चन्द्र जैसे महादानी पुत्र का भी वरदान दिया। साथ ही आंवले के फल को औषधीय गुणों का वरदान मिला।


बृहदधर्म पुराण में लिखा गया है कि आंवला के वृक्ष में आमलकी देवी का पूजन करना चाहिये। इससे भगवान श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं।


आंवले के गुणों तथा महत्ता को बनाये रखने के लिये हमारे धार्मिक शास्त्रों में अत्यधिक पूज्यभाव प्रदर्शित किये गये हैं। उसकी महत्ता के बारे में पुराणों के अंदर बड़ी रोचक चर्चा है जो निम्नवत है:


पुरातन काल में एक पुल्कस था। वह दिन-रात पाप ही कमाया करता था। एक दिन आखेट करते-करते उसे जोरों से क्षुधा एवं प्यास लगी। इधर-उधर देखने पर उसे एक पेड़ दिखाई पड़ा जो पके आंवलों से लदा हुआ था। उस मोटे, पके तथा रसीले आंवलों के खाने से उसकी क्षुधा एवं प्यास दोनों खत्म हो गईं। वह उस पर बहुत ऊपर चढ़ता चला गया था। अकस्मात फलों से लदी डाल टूट गई और फलों के साथ ही वह जमीन पर गिरा। गिरते ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।


उस वन में कुछ प्रेत रहते थे। वे पुल्कस के पाप कर्मों से भलीभांति परिचित थे। उन्होंने मौत के बाद उस पर अपना अधिकार जमाना चाहा, क्योंकि पापी व्यक्ति मौत के बाद प्रेत के वश में हो जाते हैं। उधर यमदूत अपना अधिकार जमाने आये, लेकिन उनमें से एक भी पुल्कस का स्पर्श नहीं कर पाता था। स्पर्श करना तो दूर रहा, उसकी ओर कोई ताक भी नहीं पाता था, क्योंकि उसके तेज से सभी के नेत्र चौंधिया जाते थे।


प्रेत और यमदूत असमंजस में पड़ गये। उन्होंने मुनियो से पूछा- महानुभावों! यह पुल्कस तो पापियों का सरदर था, फिर इसमें इतना पुण्य कहा से आ गया कि हम लोग उसे देख भी नहीं सकते ?


दयालु मुनियों ने कहा- गंगा और • तुलसी की भांति आंवले में पवित्रता तथा शुद्धता पाई जाती है। इन्हीं आंवलों के सेवन से तथा इनके छूने से पुल्कस के समस्त पाप खत्म हो गये एवं उनमें पुण्य भर गये हैं। यह अब तुम लोगों के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो गया है। भूलकर भी उसके नजदीक कदापि न जाना, नहीं तो विष्णु दूतों की मार पड़ेगी। वे इसे विमान पर बैठकार बैकुण्ठ ले जायेंगे।"


प्रेतों ने कहा- 'इतना बड़ा पापी भी जब मुक्त हो सकता है, तब हमारी भी मुक्ति सम्भव है। दया कर आप हमारी मुक्ति का साधन बतलायें ।'


मुनियों ने उन्हें आंवला खाने को कहा, लेकिन प्रेतों को आंवला जैसी पवित्र चीज तो दिखती ही नहीं, फिर ये खायें कैसे? यह समस्या खड़ी हुई। तब दयालू मुनियों ने अपनी ताकत से उन्हें आंवले दिखाये एवं खिलाये। इसी बीच चमकता हुआ एक विमान उतरा। उस पर बैठकर वह पुल्कस और प्रेतों का समुदाय बैकुण्ठ पहुच गये ।


आंवला इतना पवित्र तो है, लेकिन उसके प्रयोग में कुछ निषिद्ध दिन और तिथियां भी हैं। निषिद्ध समय पर आंवले का सेवन करना त्याज्य है। रविवार और शुक्रवार को और प्रतिपदा, षष्ठी, नवमी, अमावस्या और संक्रांति को आंवला नहीं खाना चाहिये।


तीर्थों की यात्रा एवं विविध व्रतों के अनुष्ठान में जो फल मिलता है, वह आंवले के प्रयोग से प्राप्त हो जाता है। इसके प्रयोग से देवता खुश रहते हैं तथा असुर और राक्षस अपनी दुष्टता छोड़ देते हैं। अरिष्ट एवं ग्रहों की यातना नहीं होती।


पुरातन भारतीय ज्योतिष शास्त्रों में जिन 12 राशियों को लिया गया है, वहीं उन्हें 27 नक्षत्रों के अन्तर्गत निश्चित किया गया। इन नक्षत्रों में एक नक्षत्र भरनी है। इस नक्षत्र का पेड़ आंवला है। इस नक्षत्र का जातक यदि रोजाना आंवले के पेड़ के नीचे कुंकुम आदि से पूजा-अर्चना करे तथा भरनी नक्षत्र के दिन इसकी छाया के नीचे अर्चना करे तथा अपने प्रिय देवता का विचार करे तो अनिवार्य रूप से उसकी धन की मनोकामना पूर्ण होती है।


आयुर्वेद के अनुसार आंवला को माता के समान माना गया है। वात-पित्त-कफ से पैदा होने वाले सभी विकारों का यह शमन करता है। काया में व्याधियों के पैदा होने के विशेषकर यही तीन कारण बताये गये हैं। भावप्रकाश में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आंवला ताकत एवं वीर्य को बढ़ाने वाला है।


आंवला अत्यन्त ही लाभकारी फल है। आयुर्वेद में अमृतफल के नाम से जाना जाने वाला आंवला हमारे आरोग्य के लिये अत्यधिक लाभकारी है। अचार, मुरब्बा, चटनी, चूर्ण आदि निर्मित करने में तो आंवले का प्रयोग होता ही है, इसका लगातार प्रयोग करने से हम तमाम व्याधियों से राहत पा सकते हैं। यह तीनों दोषों अर्थात् वात, पित्त एवं कफ की कमियों का शमन करता है। आंवले से अनेक आयुर्वेदिक औषधियां निर्मित की जाती हैं। इसी आंवले से एक आयुर्वेदिक योग च्यवनप्राश अवलेह बनाया जाता है। यह अनेक छोटी-बड़ी शारीरिक व्याधियों को समाप्त करके काया में ताकत तथा स्फूर्ति को दुबारा उत्पन्न करता है क्योंकि यह अत्यन्त गुणकारी रसायन है। यह बहुत पौष्टिक होता है। कास, श्वास, टी.बी. वीर्यदोष, पेशाब की कमियों, गला बैठना, दिल की व्याधियों में हितकारी एवं याद्दाश्त में वृद्धि करता है।


त्रिफला (हरड़, बहेड़ा, आंवला) को प्राचीन आयुर्वेद में त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) के तुल्य माना गया है, क्योंकि यह आरोग्यता, पालन-पोषण एवं समस्या निवारण तीनों में सर्वोच्च है।


आंवला निश्चित ही व्याधिशामक एवं. आयुवर्धक रसायन है। आंवले का एक मास तक नियमित प्रयोग करने से समूल व्याधि का शमन हो, काया में ताकत एवं नवचेतना का संचार होगा परन्तु इसे खाद्य की तरह ही प्रयोग करना चाहिये। यह प्रत्येक मौसम में प्रतिदिन आजीवन सेवनीय है। इसे 40 साल के ऊपर के उम्र वालों को जरूर प्रयोग करना चाहिये। 50-60 की उम्र तक प्रयोग करने से वृद्धावस्था आनन्द से गुजरती है एवं आयु में भी बढ़ोतरी होती है।

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