मियादी बुखार , आंत्रिक ज्वर (टायफाइड)
प्रदूषित वातावरण और दूषित जल व आहार के अधिक समय तक सेवन करने से आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) उत्पन्न होता है। आंत्रिक ज्वर को मियादी बुखार, मोतीझारा आदि अनेक नामों से संबोधित किया जाता है। आंत्रिक ज्वर से पीड़ित रोगी शारीरिक रूप से बहुत कमजोर हो जाता है। यदि समय पर उचित चिकित्सा न दी जाये तो रोगी की मृत्यु हो सकती है।
आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) के कारण
आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) गंदा पानी पीने की वजह से और बाहर का भोजन करने से फैलता है क्योंकि बाहर की ज्यादातर चीजें खुली हुई होती हैं, इन खुली हुई चीजों में मच्छर और मक्खियां बैठती हैं जो उनमें कीटाणु छोड़ देते हैं जिसकी वजह से यह बीमारी फैलती है। इस बीमारी के जीवाणु किसी रोगी व्यक्ति से स्वस्थ व्यक्ति तक पहुंचकर उन्हें भी रोगी बनाते हैं। खासकर छोटे बच्चे और युवा इस रोग से पीड़ित होते हैं। जीवाणु शरीर के अन्दर पहुंचकर आंतों में जहर पैदा करके आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) को पैदा करते हैं। जीवाणुओं के जहर के असर से आंतों में जख्म पैदा हो जाते हैं। ऐसी हालत मे रोगी के शौच में खून आने लगता है। अतिसार की स्थिति में रोगी की तबियत अधिक खराब होने की आशंका ज्यादा रहती है। यह बुखार, असमय खाना खाने, देश-विदेश में रुचि के विरुद्ध खाना, अजीर्ण में भोजन, उपवास, मौसम में परिवर्तन, विषैली चीजों का पेट में पहुंचना, अधिक मैथुन, अधिक चिन्ता, शोक, अधिक परिश्रम, धूप तथा आग में देर तक काम करना आदि के कारण हो जाता है।
आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) के लक्षण
आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) में शरीर में विभिन्न अंगों में पीड़ा, सिरदर्द, कब्ज, बैचेनी और बुखार के कम-ज्यादा होने के लक्षण दिखाई देते हैं। बिस्तर पर अधिक समय तक लेटे रहने से कमर में दर्द भी होने लगता है। रोगी को रात में नींद भी नहीं आती है। पहले सप्ताह में बुखार 100 से 102 डिग्री तक होता है और दूसरे सप्ताह में शरीर का तापमान 103 से 105 डिग्री तक बढ़ जाता हैं। तीसरे सप्ताह में ज्वर ज्यादा बढ़ जाता है। ज्वर ज्यादा होने के साथ ही रोगी के पेट मे दर्द, सिर में दर्द, खांसी और प्यास अधिक लगती है। रोगी को खड़े होने में, चलने में कठिनाई होती है। पांव लड़खड़ाते हैं और आंखों के आगे अंधेरा छाने लगता है।
आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) में भोजन की लापरवाही या भूख न लगने से यदि अतिसार हो जाए तो रोगी की हालत बिगड़ जाती है। शरीर में कमजोरी आ जाने की वजह से रोगी मृत्यु की कगार पर पहुंच सकता है। आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) के दूसरे सप्ताह में रोगी की छाती और पेट पर छोटे-छोटे सफेद दाने निकल आते हैं। इन सफेद मोती जैसे दानों के कारण आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) को मोतीझारा भी कहते हैं यदि ज्वर खत्म हो जाने के बाद भी दानें पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाते तो रोगी को ज्यादा नुकसान पहुंच सकता है।
शरीर में थकावट, बार-बार जम्भाई (नींद आने की उबकाइयां) आना, आंखों में जलन, भोजन में अरुचि, कभी गर्मी और कभी सर्दी लगना, जोड़ों में दर्द, आंखों में लाली, आंखें फटी-फटी सी, अधमुन्दी या तिरछी, आंखें भीतर की ओर धंस जाना, कानों में दर्द, गले में कांटे-से लगना, खांसी, तेजी से सांस का चलना, बेहोशी की हालत, इधर-उधर की बाते बकना, जीभ में खुरदरापन, सिर में तेजी से दर्द होना, बार-बार प्यास का लगना, छाती में दर्द होना, पसीना बहुत कम आना, मल-मूत्र का देर से आना तथा थोड़ी मात्रा में निकलना, शरीर में बहुत ज्यादा कमजोरी, शरीर पर गोल व लाल-लाल चकत्ते-से बन जाना, रोगी के मुख से बहुत कम आवाज़ निकलना, कान, नाक आदि का पक जाना, पेट का फूलना, दिन में गहरी नींद का आना, रात में नींद न आना, रोगी द्वारा उलटी-सीधी हरकतें करना, आंखों के नीचे काले गड्डे पड़ना तथा बार-बार थूकना आदि आंत्रिक बुखार (टायफाइड) के लक्षण माने जाते हैं।
टाइफॉयड का पहले सप्ताह में प्रभाव
जब यह रोग हो जाता है तो पहले सप्ताह में रोगी का शरीर धीरे-धीरे गर्म होने लगता है फिर ज्वर नियमित भाव से बढ़कर सातवें दिन से 105 डिग्री तक पहुंच जाता है। तीसरे पहर (दोपहर के समय के बाद) शरीर में ताप होता है और सुबह के समय में बुखार लगभग 106 डिग्री से ऊपर हो जाता है। बुखार के तेज होने के अनुसार नाड़ी तेज नहीं होती है, नाड़ी की स्पन्दन (कंपन) प्रति मिनट 90 या 91 के आस-पास या उससे अधिक हो जाती है। नाड़ी पूर्ण, कड़ी रहती है और एक साथ ही दो आघात हुआ करता है, जीभ मैली रहती है और सफेद, पेट थोड़ा फूला हुआ रहता है और पेट में दर्द होता है। रोगी के पेट में गड़बड़ी होती है। उड़द की दाल की तरह दस्त होता है और दस्त फैन युक्त हरी पतली होती है। कान से कम सुनाई देता है। जब बुखार अधिक नहीं रहता तो उस समय रोगी कुछ न कुछ बकता रहता है लेकिन सिर में दर्द और रात के समय मानसिक भ्रम होता है। पहले सप्ताह की अंतिम अवस्था में प्लीहा बढ़ जाती है और पहले पेट पर और उसके बाद शरीर पर गुलाबी दाने निकल आते हैं। यदि रोगी के शरीर का रंग गोरा नहीं होता तो दाने ठीक प्रकार से दिखाई नहीं पड़ते हैं। सर्दी तथा खांसी के लक्षण भी दिखाई पड़ते हैं।
टाइफॉइड रोग का दूसरा सप्ताह
इस रोग के सभी लक्षण बढ़ जाते हैं और बुखार का ताप भी बढ़ने लगता है और पहले सप्ताह सुबह के समय में बुखार कम नहीं होता है। नाड़ी तेज रहती है और दो आघात वाली अवस्था उत्पन्न नहीं दिखाई पड़ती, सिर में दर्द भी नहीं होता है लेकिन मानसिक सुस्ती और चुप रहने का मन अधिक करता है। रोगी का चेहरा, होंठ और जीभ सूखी रहती है और उसे अधिक सुस्ती महसूस होती है, पित्त-शून्य बुलबुले की तरह पीला या स्लेटी रंग का होता है, दस्त या कीचड़ के रंग का होता है। कभी-कभी कब्ज की समस्या भी हो जाती है। इस अवस्था में रोगी में कई प्रकार के लक्षण भी दिखाई पड़ते हैं- शरीर में अकड़न होकर दर्द होना, आंतों से खून बहना, पेशी का कांपना, बेहोशी पन, प्लीहा का बढ़ना तथा सूखी खांसी होना। रोग की अवस्था तेज होने पर आंतों से खून बहने लगता है और स्नायुविक कमजोरी महसूस होती है जिसके कारण मृत्यु भी हो सकती है।
टाइफॉड रोग का तीसरा सप्ताह
जब इस रोग का तीसरा सप्ताह शुरू होता है तो रोगी के नाड़ी की गति लगभग 110 से 120 प्रति मिनट हो जाती है। सुबह के समय रोगी का बुखार कम होता है और इसके बाद कम होता जाता है। शरीर में कमजोरी बढ़ती जाती है। उसके दांतों पर मैल जम जाता है और दांत काले पड़ जाते हैं। रोगी सुस्त पड़ा रहता है, उसका पेशाब रुक जाता है, गहरी नींद आती है, जीभ सूखी रहती है और भूरे रंग या चमकीली लाल या पुराने चमड़ी की तरह सूखी रहती है। पेट फूलने लगता है और पतले दस्त आने लगते हैं। इसके अलावा रोगी में और भी कई प्रकार के लक्षण हो जाते हैं- पेशियों का कांपना, आंतों में छेद और खून का रुक जाना, किसी भी लोगों को पहचान न पाना, कमजोरी बढ़ना और श्वासयंत्र से सम्बन्धित कई प्रकार के रोग के लक्षण होना। इस प्रकार के लक्षण होने पर रोगी की मृत्यु भी हो सकती है या शरीर का ताप घटकर आरोग्य की अवस्था उत्पन्न हो जाती है।
जब रोगी का रोग ठीक हो जाता है तो उसको भूख लगती है, जीभ साफ हो जाती है, कुछ शरीर में ताकत मिलती है और स्वास्थ के कुछ लक्षण भी हो जाते हैं। इसके कुछ दिनों बाद रोगी में फिर रोग के लक्षण और अनियमित ज्वर के रूप में प्रकट होते हैं।
टाइफायड रोग का चौथा सप्ताह
इस अवस्था में रोगी अधिकतर ठीक हो जाता है और शरीर का ताप भी स्वाभाविक अवस्था पर आने लगता है, जीभ साफ हो जाती है और भूख लगने लगती है। फिर कुछ दिनों के बाद रोगी के रोग के तीसरे सप्ताह के लक्षण सब बढ़ने लगते है। रोगी बेहोश पड़ा रहता है और बीच-बीच में कुछ न कुछ बड़बड़ात रहता है। वह अपना हाथ पटकता रहता है, मानो किसी चीज को पकड़ना चाहता हो, वह पकड़ नहीं सकता, अनजाने में पाखाना, पेशाब हुआ करता है। उसके पीठ पर जख्म भी हो जाता है।
टाइफॉयड रोग का पांचवा और छठा सप्ताह
इस अवस्था में रोगी को हल्का बुखार रहता है, इस रोग के अंत में 39 या 40 दिनों के बाद बुखार कम होने लगता है फिर रोग दुबारा नहीं होता है।
अधिकतर टाइफॉयड के लक्षण दिखाई नहीं पड़ते हैं या इसमें कुछ गड़बड़ी दिखाई देती है। जब रोगी की पहली अवस्था होती है तो रोग को पहचान पाना कठिन हो जाता है लेकिन जब तेज सिर में दर्द होता है, स्नायु में दर्द होता है, शरीर में अकड़न होती है, मस्तिष्क में जलन होती है, श्वासनली में भी जलन होती है, न्युमोनिया हो जाता है, प्लुरिसी भी हो जाता है, अचानक जी मिचलाने लगता है आदि जलन होने के लक्षण के साथ रोग आरम्भ होने तक रोग का निर्णय करना, रोग की पहली अवस्था में लगभग असम्भव ही होता है। इस रोग के दूसरे लक्षण न होने पर टाइफायड की चिकित्सा नहीं की जाती है।
टाइफॉयड ज्वर से पीड़ित रोगी के शरीर का ताप धीरे-धीरे बढ़ने लगता है, सुबह के समय बुखार का ताप शाम की अपेक्षा एक से डेढ़ डिग्री कम रहता है। जब रोगी ठीक हो जाता है तो उसके शरीर का ताप धीरे-धीरे कम होने लगता है लेकिन अचानक शरीर का ताप बढ़ना या घटना भी इस रोग का लक्षण हो सकता है।
इस रोग से पीड़ित रोगी का बुखार कभी-कभी एकदम ठीक हो जाता है और फिर अचानक बुखार आ जाता है या अधिकतर दोपहर के बाद शरीर का ताप बढ़ने लगता है और दूसरे-दूसरे रोग के लक्षण भी दिखाई देने लगते हैं। इस रोग में प्लुरिसी या न्युमोनिया रोग के लक्षण भी कभी-कभी दिखाई पड़ने लगते हैं।
टाइफॉयड रोग से पीड़ित रोगी के शरीर की त्वचा पर रोग के प्रथम सप्ताह के अंतिम अवस्था और द्वितीय सप्ताह के शुरुआती अवस्था में दिखाई पड़ते हैं लेकिन सांवले या मैले शरीर वाले रोगियों के शरीर पर ये दाने सही से दिखाई नहीं पड़ते हैं। इसके अलावा रोगी में और भी लक्षण होते हैं जो इस प्रकार हैं- शरीर के त्वचा पर कई जगह सूजन होना, पसीना आना, बाल झड़ना, पीठ पर फोड़ा होना आदि।
इस रोग से पीड़ित रोगी के खून में कुछ परिवर्तन हो जाता है। शरीर के खून में सफेद कण कुछ कम हो जाते हैं, हीमोग्लोबिन घट जाता है और शरीर में खून की कमी भी हो जाती है। नाड़ी तेज हो जाती है, लेकिन जितना बुखार रहता है उतनी तेज नहीं रहती है। नाड़ी का दो आघात होता हैं इस प्रकार के दो आघात किसी दूसरे प्रकार के रोग में देखने को नहीं मिलते हैं। रोग बढ़ने के साथ-साथ नाड़ी पतली और चंचल होती है। जब रोगी का यह रोग ठीक हो जाता है तो इस अवस्था में नाड़ी की गति कभी-कभी कमजोर हो जाती है, किसी दूसरे रोग में नाड़ी की गति इस प्रकार की नहीं होती है लेकिन ऐसा कम ही होता है। शरीर में खून का दबाव धीरे-धीरे कम हो जाता है, प्राय: हृत्पिण्ड की आवाज में कोई गड़बड़ी नहीं दिखाई पड़ती है। पैर की शिराओं में खून का दबाव कम हो जाता है जिसके कारण शरीर का ताप भी घटने लगता है, शरीर ठंडा हो जाता है, दर्द होता है तथा पैर में सूजन भी हो जाती है।
आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) में भोजन और परहेज
आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) के रोगी को बिना मसाले का भोजन, मूंग की दाल, हरी सब्जियां देनी चाहिए। आंत्रिक ज्वर से पीड़ित रोगी पानी को उबालकर प्रयोग कर सकते हैं।
आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) के रोगी को बाहर का भोजन कभी नहीं करना चाहिए और उसे तली हुई चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए। ठंड़ा पानी या ठंड़ी चीजों का सेवन भी नहीं करना चाहिए।
- मुनक्का को बीच में से चीरकर उसमें कालानमक लगाकर, हल्का सा सेंककर खाने से टायफाइड के बुखार में बहुत जल्दी आराम आता है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार मुनक्का के सेवन से आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) के जीवाणु भी नष्ट होते हैं। मुनक्का को अधिक मात्रा में नहीं खाना चाहिए क्योंकि ज्यादा मुनक्का खाने से अतिसार हो सकता है।
- 3-3 ग्राम की मात्रा में मुनक्का, अड़ूसा, हरड़ को लेकर 300 मिलीलीटर पानी में डालकर उसका काढ़ा बना ले फिर उसमें शहद और मिश्री को मिलाकर रोगी को पिलाने से आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) में आराम आता है।
- आंत्रिक ज्वर (टायफाइड) होने पर तेलीय जुलाब देने से रोगी को हानि पहुंच सकती है, इसलिए 3-4 मुनक्का दूध में उबालकर पीने से रोगी की मलक्रिया में रुकावट आना आसानी से दूर हो जाती है
- 5 मिलीलीटर गिलोय के रस को थोड़े से शहद के साथ मिलाकर चाटने से आंत्रिक बुखार (टायफाइड) में बहुत आराम आता है। गिलोय का काढ़ा भी शहद के साथ मिलाकर पी सकते हैं।
टायफाइड रोग को रोकने का उपाय
- जब टाइफायड रोग का संक्रमण फैलता हुआ दिखाई दे तो अपने घरों और उसके चारों ओर साफ-सफाई करवायें।
- घर के गंदे पानी को बाहर निकलने के लिए उचित प्रबंध करना चाहिए।
- रोगी को पानी खौलाकर पीना चाहिए।
- खाने-पीने के चीजों पर मक्खी न बैठने दे या धूल न पड़ने दे, इस पर नज़र रखना चाहिए।
- सड़ी-गली हुई चीजों को नहीं खाना चाहिए।
- रोगी को एक बार में अधिक खाना नहीं खाना चाहिए।
- बहुत ज्यादा परिश्रम नहीं करना चाहिए।
- रात के समय में अधिक नहीं जागना चाहिए।
- सभी प्रकार के अनुचित कार्य को छोड़ देना चाहिए।
- रोगी का मल, मूत्र और उल्टी आदि को घर से कहीं दूर गाड़ देना चाहिए।
- रोगी के घर में चिकित्सक, नर्स या उसका सेवा करने के अलावा किसी ओर को नहीं जाने देना चाहिए।
- रोगी के रोग को ठीक करने के लिए औषधि की अपेक्षा परहेज पर अधिक ध्यान रखना चाहिए तभी यह रोग ठीक हो सकता है।
- रोगी को रोशनी और हवा-भरे कमरे में कोमल और साफ बिस्तर पर आराम कराना चाहिए।
- रोगी के बिस्तर की चादर के नीचे आयल-क्लोथ (तेल से भीगा कपड़ा) बिछाकर रखना चाहिए।
- रोगी को भोजन पतला, तरल अधिक उबला हुआ पर जल्दी से पचने वाला होना चाहिए।
- रोगी को अधिक पानी पिलाना चाहिए, पानी छाना हुआ होना चाहिए और मिश्री डालकर औंटा हुआ पानी भी रोगी को देना लाभदायक होता है।
- रोगी के मुंह और जीभ को साफ रखना चाहिए।
- रोगी के पीठ पर उपचार करने के समय में बीच-बीच में बोरिक एसिड लगाना चाहिए इससे शय्याक्षत नहीं होता है।
- रोगी के आंतें फट जाने पर चिकित्सक की सलाह लेकर ही उपचार करना चाहिए।
- रोग होने के समय में ठंडा पानी, जौ का पानी, साग या आरारूट का सेवन करना चाहिए।
- यदि रोगी को पतला दस्त आ रहा हो तो उसे छाने हुए पानी पिलाना चाहिए। रोग आरम्भ होने से लेकर अंत तक छाने का पानी सेवन कराने से अधिक लाभ आता है।
- रोगी बहुत अधिक कमजोर हो गया हो तो प्लेजन आरारूट या मांगुर मछली या सिंगी मछली का शोरबा या थोड़ा सा दूध पिलाना चाहिए।
- रोगी को कभी भी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए।
- रोगी के कमरे में हवा आने के लिए अच्छा प्रबंध करना चाहिए।
- रोगी के खाने की चीज और दवाएं अलग रखना चाहिए।
- रोगी को मजबूत रखने के लिए शराब या मांस या कोई दूसरी उत्तेजक दावा का उपयोग नहीं करना चाहिए।
- रोगी को अधिक आराम करना चाहिए और तब तक आराम करना चाहिए जब तक कि वह ठीक न हो जाए।
- रोगी से स्वास्थ्य के नियम का पालन करना चाहिए।
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