दवाओं पर आश्रित जीवन
Life on Medicine |
हमारे देश मे पिछले कुछ दशकों में दवाओं की बाढ़ सी आ गई है । छोटे - बड़े रोगों के लिए अनेक प्रकार की दवाइयां बाजार मे उपलब्ध हैं और उनका प्रचार - प्रसार इस हद तक हो चुका है कि शहरों में ही नही बल्कि गाँवो में भी लोग उन्हें स्वतः या किसी से सुनकर या विक्रेता के विवेक पर खरीद कर सेवन कर रहे है । ऐसी दवाओं में ज्यादातर औषधियाँ सिरदर्द , बदन दर्द , पेट दर्द , बुखार , सर्दी - जुकाम , खाँसी , अतिसार , अनिद्रा आदि अनेक कष्टो से छुटकारा पाने के लिए बिना किसी डॉक्टर की सलाह के ही उपयोग में लाई जा रही हैं । इतना ही नही , डॉक्टर की सलाह के बिना ही कुछ लोगो को " ब्रॉड स्पेक्ट्रम " ऐंटीबॉयोटिक और कार्टिजोन आदि का भी सेवन करते हुए पाया गया है , जो अत्यंत खतरनाक साबित हो सकता है । इसमें सन्देह नही की औषधियों से कुछ राहत तो मिल ही जाती हैं , परन्तु इस प्रवृत्ति ने लोगो को दवाओं का आदि बना दिया है । जरा सी तकलीफ हुई नही की उन्होंने कोई - न - कोई दवा ले ली । ऐसी स्थिति में दवाओं पर हमारी निर्भरता दिन - प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही हैं । आज औषधियाँ जहाँ एक ओर काफी प्रभावकारी हैं , वही दूसरी ओर लम्बे समय तक उपयोग करने पर बहुत हानिकारक भी हो सकती हैं । औषध विशषज्ञों का मानना है कि अधिकांश औषधियाँ किसी न किसी प्रकार के रसायन या विष से निर्मित होती हैं और जब डॉक्टर द्वारा किसी व्यक्ति विशेष को उसकी सहनीय सीमा के अंदर दी जाती हैं तभी औषध का कार्य करती है , अन्यथा ये सिर्फ विष है और हानिकारक है । उदाहरण के लिए आवश्यकता से अधिक इन्सुलिन या मधुमेह रोधी गोलियां जानलेवा सिद्ध हो सकती हैं । इस देश का गरीब , अशिक्षित या अर्धशिक्षित और अंग्रेजी भाषा के ज्ञान से अनभिज्ञ एक बहुत बड़ा जनसमुदाय इन दवाओं के अतिरिक्त प्रभावों ( साइड इफेक्ट्स ) से पूर्णतः अनभिज्ञ है । वह यह नही जानता कि डॉक्टर की सलाह के बगैर लम्बे समय तक इन औषधियों के सेवन से कैसे - कैसे दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं ।
ऐलोपैथिक दवाएं |
एलोपैथिक औषधियों के कारण उत्पन्न रोग , अक्सर उस रोग से ज्यादा भयानक होता है , जिसके निवारण के लिए वह दवा दी गई थी
हमारे समाज के मध्य और उच्चवर्गीय सम्पन्न लोगों के लिए तो अतिसाधारण रोगों में भी अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी और आधुनिकतम औषधियों का उपयोग करने , उनके आर्थिक वैभव का प्रतीक बन गया है । आज जीवन की सभी दशाओ में अर्थात गर्भावस्था में , जन्म के समय , शैशवास्था में , बाल्यकाल में , किशोरावस्था में , स्त्रियों के मासिक स्त्राव के बन्द होने पर अथवा वृद्धावस्था में दवाओं के बिना हमारा काम नही चल रहा है ।
जिंदगी रोगग्रस्त स्वास्थ्य की एक स्तिथि से दूसरी स्तिथि में बदलती जाती हैं और हमे विभिन्न प्रकार की चिकित्सा की आवश्यकता पड़ती जाती है । हमारी जीवनशैली में ऐसे परिहार्य बदलाव आते जा रहे है जो हमे न सिर्फ रोगोन्मुख करते है , बल्कि जीर्णकालिक रोगों से भी ग्रस्त करते जा रहे है । मोटापा , उच्च रक्तचाप और मधुमेह आदि के रोगियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि होती जा रही हैं ।
आर्थिक , व्यावसायिक तनावो और पारिवारिक एवं सामाजिक रिश्तों में बढ़ते असन्तोष के कारण निराशाग्रस्त एवं अन्य मानसिक रोगियों की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही हैं । युवक - युवतियों की जीवन - शैली में आधुनिक बदलाव के कारण शराब , सिगरेट और ड्रग्स के अंधाधुंध उपयोग से कैंसर समेत विभिन्न प्रकार की बीमारियां हमे ग्रस्त करती जा रही हैं ।
ऐसी स्तिथि में यह धारणा घर करती जा रही है कि औषधियों पर हमारी निर्भरता को कम नही किया जा सकता । दरअसल सच तो यह है कि अनेक साधारण रोगों में जब कम से कम औषधियों का उपयोग किया जाता हैं तब सर्वोत्तम परिणाम सामने आते है । अधिकांश स्तिथियों में आधुनिक औषधियों के बजाय ग्रामीणों में पुरातन घरेलू उपचारों , होमियोपैथी एवं प्राकृतिक चिकित्सा से हमे स्थाई लाभ मिल सकता हैं । आधुनिक औषधियाँ किन्ही विशिष्ट लक्षणो के निवारण में सहायक हो सकती हैं परंतु इसका अर्थ यह नही है कि ये रोगी के सम्पूर्ण स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है । इससे यह समझ लेना एक बड़ी भूल होगी कि हमें औषध लेना ही नही चाहिए । रुग्णता की अवस्था मे डॉक्टर की सलाह से औषध का सेवन करना जहाँ एक और स्वास्थ्य के पुनर्निर्माण के लिए जरूरी है , वही दूसरी और अपनी आन्तरिक रोग - प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए अपनी जीवनशैली में प्राकृतिक उपचारों का समावेश करने की भी आवश्यकता है । एक बार निरोगी हो जाने के बाद अपनी दिनचर्या और जीवनशैली में किसी भी कीमत पर अनुशासनहीनता नही आने देना चाहिए ।
Naturopathy |
" द की टू गेटिंग वेल " में डॉ . राममूर्ति ने लिखा है कि यदि हम एक विवेकपूर्ण और संतुलित दिनचर्या एवं जीवनशैली अपना ले और उसका दृढ़ता से पालन करे तो अनेक रोगों एवं उनके दुष्परिणामो से बचा जा सकता हैं । उनका मानना है कि उचित भोजन की आदत डालकर तथा मदिरा , तम्बाकू एवं अन्य हानिकारक ' ड्रग्स ' से परहेज और अपने वजन को नियंत्रित करने के लिए समुचित व्यायाम आदि के द्वारा हम अपने शरीर को स्वस्थ बनाये रख सकते है । वह मानते है कि अनेक ऐसे रोग है जिनके निदान के लिए औषध की आवश्यकता नही है और उन्हें प्राकृतिक संसाधनों से ही दूर किया जा सकता हैं
यहाँ इस बात का उल्लेख भी कर देना आवश्यक है कि चिकित्सा वैज्ञनिकों ने अपने अध्ययनों में यह पाया है कि उच्च रक्तचाप , विषैला घेंघा , अर्धकपाली , गठिया , रक्ताघात , ह्रदय रोग , आमाशय और आँतों का अल्सर आदि अन्य गम्भीर बीमारियाँ संवेगिक तनावों के कारण उत्पन्न हो सकती हैं ।
भय , दुःख , ईर्ष्या , चिन्ता , क्रोध , घृणा आदि के कारण उत्पन्न तनाव हमारे जीवन में जहर घोल कर अनेक रोगों को जन्म देते है । एक अनुमान के मुताबिक इन संवेग जनित तनावों के कारण उत्पन्न रोगों का प्रतिशत साठ से सौ तक हो सकता है । एक चिकित्सक इन तनावों के कारण उत्पन्न रोग लक्षणो के लिए तो औषध दे सकता है , किन्तु इन तनावों के उत्तपन्न होने के पीछे स्थित कारणों को दूर नही कर सकता । स्वास्थ्य के लिए अत्यंत अनिवार्य मन की शान्ति को टैबलेट के रूप मे नही खरीदा जा सकता । चिकित्सा विज्ञान आज एक ऐसे मोड़ पर पहुँच गया हैं जहाँ से महत्वपूर्ण परिवर्तनों के संकेत नजर आने लगे हैं । लोग यह अनुभव करने लगे हैं कि उपचार के लिए आधुनिक चिकित्सा पद्धति की स्थूल मात्रा में दी जाने वाली विशाक्त और शक्तिशाली औषधियाँ न सिर्फ रोग लक्षणो को दबा देती हैं और अतिरिक्त प्रभावों को जन्म देती हैं , बल्कि ये हमारे शरीर को सभी स्तरों पर कमजोर भी करती हैं । इसके विपरीत होम्योपैथी और प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली हमारी रोग - प्रतिरोधक ऊर्जा के स्तर में रचनात्मक परिवर्तन करके हमारा शारिरिक , संवेगिक और मानसिक स्वास्थ्य पुनः स्थापित करती है । एक स्वस्थ और संतुलित जीवन के लिए मानसिक , संवेगिक और शारिरिक तीनो ही स्तरों पर उपयुक्त व्यवस्था और नियंत्रण बनाये रखने की आवश्यकता है ।
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जय हिंद - जय भारत
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